कुछ जगहें, बूढ़ी हो चली हैं
या फिर बूढ़ा हो चला है उनका एहसास
मैं हर साल वापस आती हूँ
और खुद को ढूंढती हूँ यहाँ
डेस्क पे बनी सालों पुरानी लकीरों पे
जब हाथ फेरो तो लगता है जैसे
नानी के हाथ हों
उम्र की सूखी लकीरें हैं
पर पहचानती हैं मुझे
उनकी छुअन में सुकून है,
जो मुझे और उन्हें बराबर का मिलता है….
कुछ मैं उनका हाल पूछती हूँ
कुछ वो मुझसे कहती हैं
थोड़ी देर बातें करते हैं हम
मैं कहती हूँ,
यहाँ ही बैठती थी मैं,
शायद ये निशाँ मेरे ही हैं,
खिड़की में से दिखते पहाड़ अब भी वो ही तो हैं…..
मैं कितना याद करती हूँ ये सब …..
फिर सोचती हूँ, इस जगह की भी रूह होगी कोई
जो मुझे सोचती होगी,
मेरा इंतज़ार करती होगी
के मैं आऊँ और सहलाऊं
गुज़रे वक़्त की ये लकीरें…..
इस बार एक आवाज़ ने जैसे कहा मुझसे,
“फिर लौटना, तुम्हारा कितना इंतज़ार रहता है….”

Intezar is something we have all felt.
Thanks.
Beautifully written. A place on earth where we will always feel loved and wanted