पता नहीं आपकी आँखों पे ऐनक है या चश्मा,
आठ साल के बच्चे को सब्ज़ी परोसते हुए, ‘मुन्ना सर’ आपने पूछा नहीं कि हिन्दू है या मुसलमाँ।
चार सौ मीटर दौड़ने के बाद हाथ कमर पे गए ही थे कि एक डाँट सुनाई दी।
“सीधा खड़ा रह, थक गया…”
डाँटने वाला ‘मदन’ था, शायद हिन्दू था।
दूसरे स्कूल से लड़ाई हो गयी, एक सरिया
मुझे छूने के पहले किसी और के चेहरे को छील गया। वो चेहरा ‘मज़हर’ का था, मुसलमाँ होगा।
हमको पकड़ के नहलाया, ज़ोर से बालों में तेल लगाती, ‘रामकली आयाजी’ हिन्दू रही होंगी।
हमारे पेशाब किये बिस्तर साफ करती, हमारी जूतों को उनकी जगह रखती, ‘संतो आयाजी’ क्या हिन्दू थीं?
मेरी आठ साल की बेटी को गोद में लेकर, उसको बेआराम होता देख ‘उड़ी बाबा’ बोला “तेरे बाप को भी इसी उम्र में उठाया था।” ‘ख़लील’ मुसलमाँ ही होगा।
सवा छह फुट का बूढ़ा रोज़ सुबह हमें खेलता देखता, शाम की जीत पे ताली बजाता, बच्चे उसे ‘मुबारक़ जी’ कहते थे, नाम से तो मुसलमाँ ही लगता था।
पंद्रह साल बाद मिलने पे पहला सवाल था
“क्या खाओगे?” इतवार का ऑमलेट ‘शम्भू’ ने खिलाया, हिन्दू मालूम देता था।
हमारा बकस अपने कंधों पे उठा लेता, हमारी शरारत हँस के पचा जाता था। बद्तमीज़ी बर्दाश्त न करने वाला ‘राजन’ शर्तिया हिन्दू था।
अंडे की भुरजी देर से आई, लड़का गुस्से से तमतमा उठा पर लाने वाले ने मुस्कुराते हुए कहा, “लेयो” ‘नन्हे मियाँ’ आप मुसलमाँ थे क्या?
नौ दुर्गा के दिनों मुझे पनीर और मेरे बंगाली दोस्त को क़बाब परोसे, गीले हाथों को अपनी कमीज़ से पोछने का हक़ दिया। ‘संजय’ ये तो बता देते कि हिन्दू थे।
उस गाँव से निकल कर हम कुछ हिन्दू और कुछ मुसलमाँ हो गए हालाँकि उस ढाई बड़े चमचा दाल ने ये नहीं बताया कि ‘भगन्ता जी’ आप हिन्दू थे या मुसलमाँ।
-सुदीप बाजपेई (1996 Batch)
This content has been reproduced from a Facebook post by Sudip Bajpai on March 29, 2020.